बिहार चुनाव की सरगर्मी चरम पर है. चुनावी सरगर्मी के बीच निष्ठाएं बदलने का दौर भी जारी है. सालों की दोस्ती ताश के पत्तों की तरह ढह रही है. दुहाई और कसमें चरमरा और भहरा रही हैं. नेता कपड़ों की तरह पार्टी बदल रहे हैं. पार्टी बदलने के बाद सुर भी बदल रहे हैं. कल तक जो फूटी आंख नहीं सुहाता था. चुनावी नफा-नुकसान में वहीं सबसे बड़ा हितैषी और विकास करनेवाला बन रहा है. कोई कह रहा है कि लालू केवल सत्ता के लिए राजनीति कर रहे हैं. तो कोई उन्हें गरीबों और मजलूमों का मसीहा बताने में जुटा है. यही बात नीतीश और रामविलास के लिए भी कही जा रही है.
आज ही आरजेडी से बीस सालों का वास्ता तोड़कर पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह अलग हो गए. अखिलेश ने कांग्रेस में जाने की स्क्रिप्ट तैयार कर ली है. अब उस पर केवल अमली जामा पहनाया जाना बाकी है. पार्टी छोड़ने के साथ लालू प्रसाद में उन्हें खामियां ही खामियां नजर आने लगीं. लालू को सवर्णों का विरोधी करार दिया. जिस एमवाई यानि मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे लालू ने पंद्रह सालों तक बिहार पर राज किया. उसी एमवाई समीकरण को अखिलेश ने नया नाम दे दिया है. अखिलेश अब इसे पाई समीकरण बताने में जुटे हैं. पाई यानि पासवान-यादव. चूंकि लालू प्रसाद यादव हैं और उनका चुनावी समझौता रामविलास पासवान के साथ है. सो समीकरण को पाई कह दिया गया. अखिलेश के साथ आरजेडी के एक और नेता नाराज हैं. इनका नाम उमाशंकर सिंह हैं. जनाब महराजगंज से सांसद हैं और प्रभुनाथ सिंह जैसे कद्दावर नेता को हराकर जीते हैं. अब प्रभुनाथ आरजेडी में आ गए हैं. सो सबसे ज्यादा परेशानी उमाशंकर सिंह को है. वो अपना विरोध तो जता रहे हैं. लेकिन कुर्सी का मोह ही ऐसा है कि छोड़ा नहीं जा रहा है. सो पार्टी के अंदर रहकर ही विरोध कर रहे हैं. क्योंकि अगर पार्टी से बाहर चले जाएंगे. तो सांसद की कुर्सी चली जाएगी और सांसद महोदय को ये डर तो सता ही रहा है कि अगली बार जनता साथ दे या नहीं. ऐसा ही हाल जेडीयू सांसद ललन सिंह का है. जो खुलकर कांग्रेस के पक्ष में हैं. लेकिन पार्टी छोड़ने के नाम पर चुप्पी साध लेते हैं.
हाल में आरजेडी से पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि ने भी नाता तोड़ लिया था और धूम धड़ाके के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए थे. कांग्रेस में शामिल होने से पहले ही नागमणि ने जमकर ढोल बजाया और अपने कांग्रेस में जाने की मुनादी की. साथ ही ये तुर्रा भी गांठा कि वो जिस दल में जाते हैं. उसकी सरकार बन जाती है. इसके लिए वो पिछले कई सालों का हवाला देते हैं. लेकिन साहब नागमणि का क्या होता है. ये तो उनके पार्टी बदलने से ही पता चल जाता है. पिछला चुनाव हुआ था. तो नागमणि जेडीयू में थे. लेकिन चुनाव के कुछ दिन बाद ही उनका मोहभंग हो गया और वो आरजेडी के हो गए. लेकिन साहब का मन आरजेडी में भी नहीं लगा. अब कांग्रेस में आए हैं. लेकिन देखना है कि कांग्रेस कितने दिनों तक उनका सहारा बनती है.
आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा करनेवाली एलजेपी में तो जैसे हलचल मची है. पार्टी का पूरा अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की खिसक कर जेडीयू के पाले में जा गिरा है. साथ ही पार्टी के महासचिव मोहन सिंह ने भी अपना इस्तीफा पार्टी को पकड़ा दिया है. मोहन ने इस्तीफे के साथ गंभीर आरोप भी एलजेपी पर मढ़ा है. उनका कहना है कि पार्टी ने उनसे टिकट के नाम पर दस लाख लिए थे. लेकिन पैसे लेने के बाद भी उनका टिकट काट दिया गया. अब टिकट कट गया है. तो फिर पार्टी में क्या काम. सो मोहन सिंह अब बे-दल हो गए हैं.
ऐसे ही दर्जनों मामले बिहार चुनाव के दौरान देखने को मिल रहे हैं. आनेवाले दिनों में ये सिलसिला बंद होगा. ऐसा नहीं लग रहा है. माना जा रहा है कि प्रत्याशियों की घोषणा के साथ इसमें और तेजी आएगी. जिसका शिकार केवल कोई एक दल ही नहीं होगा. बल्कि दल बदल की मार हर दल पर पड़ेगी. क्योंकि ऐसे ही हम इसे दल-बदल का दलदल नहीं कह रहे हैं.