Saturday, July 31, 2010

बाहुबलियों की शरण में नीतीश

नीतीश कुमार जिस बाहुबल और अपराध के खात्मे का नारा देकर बिहार में सत्तासीन हुए थे. अब उसी बाहुबल के सामने नतमस्तक होते दिख रहे हैं. इसकी शुरुआत तस्लीमुद्दीन के जेडीयू में शामिल करने से हुई. जहां पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तस्लीमुद्दीन से ऐसी जुगल बंदी की. जिस पर नीतीश के जाननेवालों को भी विश्वास करना मुश्किल हो रहा था. खैर इसे सीमांचल में अपनी क्षमता बढ़ाने के तौर पर देखा गया.
इसके बाद दूसरा दृश्य जो सामने आया. वो अपने आप में बड़ा ही अजीब था. मुख्यमंत्री बाहुबली आनंद मोहन के गांव पहुंच गए. हालांकि इस मौके पर आनंद मोहन की पत्नी नहीं मौजूद थी. बहाना था आनंद मोहन की भतीजी को आशीर्वाद देने का. पर जो खबरें आईं. उससे साफ लगा कि मुख्यमंत्री आनंद मोहन और लवली आनंद को जेडीयू में शामिल करना चाहते हैं. इस संबंध में जब पत्रकारों ने मुख्यमंत्री से सवाल किया. तो उन्होंने जबाव दिया...कि इसमें आपको क्या परेशानी है. यानि कहीं न कहीं मुख्यमंत्री ने आनंद मोहन के नाम पर हामी भरी. वहीं आनंद मोहन को गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया हत्याकांड में आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रहे हैं.
इसके बाद सामने आई शहाबुद्दीन और हिना शहाब के जेडीयू में शामिल होने की चर्चा. मुख्यमंत्री जब सीवान के दौरे पर गए तो ऐसा माना जा रहा था कि वो मुलाकात के लिए हिना शहाब के यहां जा सकते हैं. सभी की निगाहें इस पर टिकी थी. लेकिन मीडिया में जोर-शोर से प्रचार होने या फिर किसी और वजह से मुख्यमंत्री हिना शहाब से नहीं मिले. यहां पर प्रभुनाथ सिंह प्रकरण का जिक्र करना भी जरूरी है. क्योंकि जेडीयू में हासिए पर चल रहे प्रभुनाथ सिंह को चुनाव आते ही मनाने की कोशिश हुई. लेकिन प्रभुनाथ नहीं माने. छपरा और आसपास के इलाकों में अच्छा प्रभाव रखनेवाले प्रभुनाथ अब आरजेडी में जाने की तैयारी में हैं.
नीतीश बाहुबलियों की शरण में क्यों जा रहे हैं. ये बात समझ से परे है. साथ ही कई सवाल भी उठते हैं. कि क्या मुख्यमंत्री को अपने किए विकास कार्यों और अन्य सुधारों पर विश्वास नहीं रहा. उस आर्थिक विकास दर पर भी नहीं. जो गुजरात के बाद बिहार की है. आखिर मुख्यमंत्री ऐसा क्यों कर रहे हैं. जेडीयू के सम्मेलनों के दौरान मुख्यमंत्री ये भाषण जरूर देते हैं. कि अगर हमें लगेगा कि हमने जो शुरुआत की है. उसका अच्छा नतीजा नहीं आ रहा है. तो हम आपके बीच में नहीं आएंगे और पटना से ही माफी मांग लेंगे. लेकिन मुख्यमंत्री जैसा कर रहे हैं. उससे कुछ और ही लगता है.

महंगाई पर भारी राहुल महाजन ?

सुबह जैसे ही उठा और टीवी ऑन किया. राहुल महाजन की दूसरी पत्नी डिंपी की अस्त व्यस्त तस्वीर के दर्शन हुए. न्यूज के लिए काम करता हूं. सो समझते देर नहीं लगी कि आज दिन भर का मसाला तैयार हो गया है. उन लोगों के लिए जो नीति निर्माता है. राहुल के कारनामे पहले से काफी कुछ मसाला न्यूज चैनलों को उपलब्ध करा चुके हैं. आर्काइव में सब पड़ा है. लगभग सभी चैनल राहुल महाजन पर घंटों का टाइम स्लॉट निछावर कर चुके हैं.
राहुल की शादी टीवी पर ही हुई थी. सो टीवी पर उनके नए कारनामे की चर्चा तो होनी थी. लेकिन हमारे हिसाब से कुछ ज्यादा हो गया. डिंपी और राहुल क्या करते हैं एक-दूसरे के खिलाफ. ये उनका निजी मसला है. लेकिन खबरिया चैनल इसमें उसी कहावत वाले काजी की तरह है. कि जब मियां-बीबी राजी, तो क्या करेगा काजी. लेकिन यहां मियां-बीबी के बीच थोड़ी तकरार हो गई. फिर क्या था खबरिया चैनलों को मिल गया. मसाला पुराने जख्म कुरेदने का. प्रमोद महाजन की मौत से लेकर राहुल महाजन की पहली और दूसरी शादी. ड्रग्स कांड सबकुछ याद दिलाया गया दिनभर. दिन और समय के हिसाब से. खुद को पत्रकारिता का खुदा माननेवाले एंकर ने इसमें और नमक-मिर्च लगाया और ऐसा परोसा कि जैसे देश की सबसे बड़ी समस्या राहुल महाजन ही हैं.
महंगाई पर चार दिन से संसद नहीं चल रही है. ये खबर राहुल के सामने सिर्फ न्यूज की पट्टी और हेडलाइन बनकर रह गई. विस्तार से इस खबर पर चर्चा नहीं हुई. कि देश की सबसे बड़ी पंचायत में काम क्यों नहीं हो रहा है. जबकि जनता की कमाई का लाखों-करोड़ों रुपए सदन को चलाने पर बर्बाद हो रहा है.

Wednesday, July 28, 2010

TRP में टेली मार्केटिंग

टेलीविजन में काम करनेवालों के लिए बॉस का खौफ कम टीआरपी का ज्यादा होता है...टीआरपी नामक के जीव के बारे में टेलीविजन देखनेवाले ज्यादातर लोग नहीं जानते हैं...ये एक खास तरह का जीव है...खास लोगों के लिए...ये खास लोग हैं न्यूज चैनलों में काम करनेवाले...जिनके लिए ये किसी दिवास्वप्न से कम नहीं...सोमवार को नया सप्ताह शुरू होने के साथ टेलीविजन चैनलों में काम करनेवालों की धड़कनें बढ़ जाती है...और मंगलवार आते-आते पारा हाई हो जाता है...बुधवार फैसले का दिन होता है...सो इन दिन के क्या कहने...अगर नंबर वन है...तो बल्ले-बल्ले...नहीं तो...?
टीआरपी की मार मालिक से शुरू होती है...जो बॉस से होते...और उनके चमचों से होते हुए आम कर्मचारियों तक पर पड़ती है...टेलीविजन देखनेवाले चंद लोगों ने क्या देखा...इसी से सब फैसला हो जाता है...टॉप ट्वंटी में कौन से प्रोग्राम आए हैं...उन्हीं पर शुरू होती है माथापच्ची...और फिर उसी तरह के प्रोग्रामों को बढचढ़ कर दिखाने का सिलसिला शुरू होता है...।
पहले क्राइम की स्टोरी का बोलबाला था...क्राइम की खबरों में नमक मिर्च लगाकर परोसा जाता था...रिक्रिएशन के नाम पर हसीनाओं का कत्ल होते दिखाया जाता था...या फिर किसी देहाती लड़के से लिपटे-चिपटते...जिसे दर्शक बड़े चाव से देखते हैं...ये खेल अब भी जारी है...ये सबकुछ हो रहा है टीआरपी के नाम पर...जिसके लिए सनसनी क्रिएट करने में भी संकोच नहीं होता...बल्कि ऐसा करने में मज़ा आता है...इसके बार शुरू हुआ...सॉप बिच्छू और जादू टोना का खेल...इसका भी खूब मार्केट चढ़ा...लेकिन अब सबकुछ मिक्स हो गया है...।
बुधवार का दिन है...सो दफ्तर पहुंचते ही...मैंने टीआरपी का मीटर देखना शुरू कर दिया...पिछले लगातार तीसरे सप्ताह जो देखने को मिला है...वो काफी चौकानेवाला है...जिसको दरकिनार भी नहीं किया जा सकता है...अब टीआरपी में टेली मार्केटिंग के कार्यक्रम भी शुमार हो गए हैं...जिनमें सभी मुश्किलें पल भर में आसान होने के नुस्खे दिखाए जाते हैं...इसका क्या संकेत माना जाए...क्या ये कहा जाए...कि आनेवाला दिन टेली मार्केटिंग के कार्यक्रमों के हवाले होगा...क्या अब खबरिया चैनलों में टेली मार्केटिंग के कार्यक्रम दिखाने की होड़ मचेगी...प्राइम टाइम पर सांप-बिच्छू, क्राइम, फिल्मों और राजनीति की खबरों नहीं दिखाई देंगी...नजर आएंगे केवल टेली मार्केटिंग के कार्यक्रम...अगर ऐसा होगा...तो क्या होगा...खुद को टेलीविजन चैनलों का खुदा माननेवाले बड़े-बड़े एंकरों की पेट पर लात पर लात पड़ जाएगी...टिकर वाले पर ब्रेकिंग और ताजा खबर चलाने का दबाव नहीं होगा...केवल अगला कार्यक्रम टीज करना होगा...रन डाउन प्रोड्यूसर और पीसीआरवालों की तो छुट्टी हो जाएगी...काम केवल एमसीआरवाले ही चला लेंगे...चाय की चुस्कियों के बीच टेली मार्केटिंग का आधा या एक घंटे का टेप वीटीआर में घुसेड़ देंगे और फिर निश्चिंत हो जाएंगे...टिकर चलानेवाले को अगले टेली मार्केटिंग के कार्यक्रम को टीज करना होगा...बताना होगा कि शीला या शकीला की छरहरी काया का राज क्या है...देखिए...फलां-फलां...टेली मार्केटिंग कार्यक्रम में...इसमें सबसे ज्यादा फायदा खबरिया चैनलों के मालिकों को होगा...रंग लगेगी ना फिटकरी रंग चोखा आएगा...भारी-भरकम स्टाफ से फुर्सत मिलेगी और चंद लोगों में काम हो जाएगा...कार्यक्रमों के लिए पैसे खर्च नहीं...बल्कि टेली कार्यक्रमों से पैसों की कमाई होगी...।
ऐसे खबरों पर गला फाड़कर चिल्लानेवाले बड़े-बड़े एंकरों का क्या होगा...कैमरे पर दिखने का आदत हो...सो कैसे चलेगा उनका काम...क्या वो खुद को आम लोगों की तरह ढाल पाएंगे...कैसे वो दूसरों से खुद को अलग दिखाएंगे...आखिर क्या होगा रास्ता...तो भैया हम बताते हैं...किसान और उसकी धनिया का रूपधर कर समाचार पढ़नेवाले एंकर यहां भी और लोगों से आगे ही निकलेंगे...और वो जल्द ही अपने को ढाल लेंगे...टेली मार्केटिंग के रंग में और शुरू हो जाएंगे...उत्पादों की खासियत बताने में...।

Monday, July 26, 2010

सरकारी डेंगू प्रजनन केंद्र...?

प्रशासन के हाल भी अलबेले हैं. अभी तक सुना था कि पहले गड्ढा खोदा जाता है और फिर उसे भर दिया जाता है. भरने के बाद फिर खोदा जाता है. ये सिलसिला लगातार चलता है. नोएडा और दिल्ली से सटे इंदिरापुरम में इससे पहली बार रू-ब-रू भी हो रहा है. कालोनी को सुंदर बनाने के लिए तरह-तरह की रेलिंग और कवायद जारी है. इसमें मानवीय पहलू का ख्याल बिल्कुल नहीं रखा जा रहा है. सड़क के बीच पड़े लगाने के लिए जगह छोड़ी गई थी. पहले उसमें ट्रकों से लाकर मिट्टी डाली गई. जिससे सड़क की हालत बिगड़ी. जब मिट्टी पड़ गई. तो पेड़ लगाने का काम शुरू हुआ. यहां तक को ठीक था. पेड़ ठीक से लगे भी नहीं थे. उस जगह को फिर से खोदा जाना शुरू हो गया और पाइप डालने के नाम पर पेड़ से सटाकर नाली बनाई जाने लगी. इस दौरान फिर मिट्टी सड़कों पर पहुंची और सैकड़ों पेड़ों की बली चढ़ी. बात यहीं तक नहीं है. अब फिर से कुछ और काम चल रहा है और सड़क के बीच की पट्टी को खोदा जा रहा है. आखिर इसकी पहले प्लानिंग क्यों नहीं होती है. कब तक चलेगा. गड्ढे खोदने और उनको पाटने का सिलसिला.
ये तो बात रही गड्ढे खोदने और पाटने की. अब बात विकास के नाम पर शहर को पत्थरों को पाटने की कोशिश की. सड़क के किनारे पहले खाली जमीन थी. बरसात के दिनों में इसके जरिए पानी जमीन के अंदर चला जाता था और बारिश के कुछ समय बात ही ये पानी को सोख लेती थी और रहा सहा पानी नाली के जरिए निकले जाता था. लेकिन अब खाली जगहों पर सीमेंट से बने पत्थर लगा दिए गए हैं. जिनसे बारिश का पानी जमीन में जाने की गुंजाइश ही नहीं बची है. ये हाल एक जगह का नहीं है. पूरे इंदिरापुरम कालोनी का है. हाल ये होता है कि अभी बमुश्किल दो तीन-दिन बारिश हुई है. वो भी काफी कम. लेकिन सड़कों का हाल बुरा है. सड़क के किनारे पानी भरा है. जिसे देखनेवाला कोई नहीं है. पानी साफ है. इसलिए इसमें मच्छर पैदा होंगे और ये मच्छर डेंगू के भी हो सकते हैं. जिनसे हर साल दर्जनों लोगों की जान दिल्ली और एनसीआर में जाती है यानि प्रशासनिक तौर पर सड़कों के किनारे बना दिए गए हैं. डेंगू प्रजनन केंद्र और इससे लोग मरें. तो प्रशासन की बला से. इसकी सुधि लेनेवाला कौन है. सड़कों और गलियों के किनारे डीटीटी का छिड़काव तो पुराने जमाने की बात रही. अब लोग हाईटेक हो चुके हैं और शहर हाईटेक हो चुका है. तो फिर इस तरह के बीमारियों की परवाह किसे है. कम से कम प्रशासन को तो नहीं.

Sunday, July 25, 2010

नीतीश की बड़ी उपलब्धि क्या...?

बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर चर्चाओं का दौर जारी है. अभी माथापच्ची ट्रेजरी से हुई सोलह हजार करोड़ से ज्यादा की निकासी की है. जिसका हिसाब-किताब मिलना बाकी है. राजनीतिक दल इस नफा-नुकसान को देख रहे हैं कि वो कैसे चुनावों में इसका फायदा उठा सकें. कह सकते हैं कि सीएजी की रिपोर्ट पर राजनीति गर्म है और नीतीश सरकार से इस्तीफा मांगा जा रहा है. सरकार बैकफुट पर दिख रही है.
लेकिन हम चर्चा नीतीश सरकार की बड़ी उपलब्धि की कर रहे हैं. आज मैं वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर जी का इंटरव्यू पढ़ रहा था. जो प्रभात खबर पटना में छपा है. उसमें उन्होंने बताया कि आखिर नीतीश सरकार का कामकाज उन्हें क्यों पसंद हैं. उन्होंने साफ कहा है कि नीतीश ने जब बिहार की गद्दी संभाली थी तो उसके बाद बड़े पैमाने पर प्रदेश में सड़कें बनीं. जिससे लोगों के आवागमन का मार्ग खुला.
इसके अलावा नीतीश ने एक और बड़ा काम किया है. वो शिक्षा के क्षेत्र में है. जिसका जिक्र नीतीश कुमार खुद करते हैं और मैं भी उसका बड़ा मुरीद हूं. वो है छात्राओं की पढ़ाई पर. किस तरह से मुख्यमंत्री साइकिल योजना ने लड़कियों को स्कूलों की ओर आकर्षित किया है. और जो पहले पढ़ने से कतराती थी अब साइकिल पर सवार होकर फर्राटे से स्कूल जाती हैं. मैं वो तस्वीर भी देखी है. जब लड़कियों ने साइकिल के लिए स्कूल प्रबंधन का विरोध किया और जब तक उन्हें साइकिल नहीं मिली. तब तक वो चैन से नहीं बैठीं. इसे अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता भी कहा जा सकता है. अब सरकार लड़कों को भी साइकिल दे रही है ये एक और सराहनीय कदम है. क्योंकि जब जागरूकता बढ़ेंगी. तो अन्य समस्याएं अपने आप हल होती जाएंगी. क्योंकि सामाजिक परिवर्तन कुछ समय में नहीं हो जाते हैं. इसके लिए लंबा समय लगता है और ये एक सतत प्रक्रिया है. इसलिए ये कहा जा सकता है कि नीतीश ने जो योजना शुरू की है. उसका असर आनेवाले कुछ सालों बाद बिहार में दिखेगा।

हमारे भाई शेष जी...

लखनऊ से इलाहाबाद के बीच चलनेवाली आरपी (रायबरेली-प्रतापगढ़) से इलाहाबाद में पहला कदम रखा. पहले ये ट्रेन रायबरेली से प्रतापगढ़ के बीच चलती थी. लेकिन बाद में इसे लखनऊ से इलाहाबाद कर दिया गया. लेकिन इसका नाम लोगों के मन में आरपी ही रचा-बसा रहा. रायबरेली और प्रतापगढ़ या यूं कहे कि ज्यादातर इस पर बैठनेवाले लोग इसे आरपी के नाम से ही जानते हैं. प्रयाग स्टेशन से उतरकर सीधा यूनिवर्सिटी पहुंचा. कल्याण सिंह के जमाने में इंटरमीडिएट किया था. सो खुद पर फक्र हो रहा था. घर से तरह-तरह के निर्देश कि कैसे जाना है. किस तरह से लोगों से पेश आना है. खैर ये सब तो रही शुरुआती दौर की बात. अब जिक्र करते हैं उस शख्सियत का जिसका हमारे जीवन में खासा महत्व है. जिसने हमें धैर्य धारण करना सिखाया. अगर मुंह पर चद्दर तान के सो जाए. तो कोई माई का लाल नहीं है. जो उसे जगा सके. जबतक कि उसकी इच्छा नहीं हो. मामा जी के रिफरेंस से शेष भाई से पहली मुलाकात स्टेनली रोड पर हुई. वो तैयार होकर किसी साथी के साथ बाहर जाने को तैयार हो रहे थे. जाना था अताउल्ला खान के दर्द भरे गीतों की कैसेट लेने, जो उस समय पूरे देश में तहलका मचाए हुए थे. तरह-तरह की चर्चाएं भी फैली थी. इस पाकिस्तानी गायक के बारे में. लगभग हर गीत-संगीत सुननेवाला उनका मुरीद था उस समय और इससे फायदा टी-सीरीज कंपनी को हो रहा था. जिसके कर्ता धर्ता गुलशन कुमार को अताउल्ला खान को सामने लाने का महान काम किया था. रोज सैकड़ों-हजारों कैसेट बिक रहे थे. इसका एक और कारण भी था. टी-सीरीज के कैसेट अन्य कंपनियों के कैसेटों से काफी सस्से थे. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कैसटीय संगीत का दरवाजा आम लोगों के लिए खुल रहा था उस समय. क्योंकि इससे पहले कैसेट के दाम इतना होता था कि आम लोग चाह कर भी नहीं खरीद पाते थे या कम ही खरीद पाते थे.
शेष भाई के साथ सामान रखने के तुरंत बाद निकल लिया. रास्ते में बात होती रही और वो हमारे बारे में पूरी पड़ताल करते रहे. कैसेट और हरी सब्जी की खरीदारी हुई. कमरे पर आकर खाने का इंतजाम होने लगा. इसी दौरान शेष भाई ने कहा कि गांव से आए हो और परचित भी हो. इसलिए तुमसे एक महीने का किराया नहीं लूंगा साथ रहो और खूब मेहनत करके पढ़ो. इसी बीच शेष भाई का कार्यक्रम अपने भाई साहब के यहां जाने का हो गया. जो उस समय नैनीताल के रामनगर में बड़े सरकारी ओहदे पर तैनात थे. गर्मी का मौसम था. सो पहाड़ की वादियों का लुत्फ उठाने के लिए बैग एंड बैगेज के साथ शेष भाई पहाड़ के लिए रवाना हो गए. रह गया मैं गर्मी से तड़पने के लिए. लेकिन मन में ललक था और साथ था शेष भाई का टेप रिकार्डर और अता उल्लाखान के कैसेट जिन्हें सुनकर दिन गुजरने लगे. पांच दिन की बात कहकर शेष भाई को गए पंद्रह दिन से ज्यादा बीत गया था. अकेले कमरे पर भी मन लगना बंद हो गया था. सो एक दिन सोचा की रात दस बजे के बाद भाई को फोन करता था. दस बजे के बाद STD का पल्स रेट उस समय एक चौथाई हो जाया करता था. लंबी लाइन लगाकर फोन मिलाया. कई बार की कोशिश के बाद फोन लगा. लेकिन शेष भाई से बात नहीं हो सकी. इस तरह से एक दिन बेकार चला गया. इसके बाद कई दिन तक परेशान होता रहा. लेकिन फोन है कि लग ही नहीं रहा था. काफी प्रयास के बाद एक दिन शाम सात बजे फुल पल्स रेट पर ही फोन लगा दिया और संयोग से शेष भाई से बात हो गई. जिसका लंबो लुबाब ये रहा कि अभी कम से कम एक महीने शेष भाई के दर्शन नहीं होंगे. क्योंकि पहाड़ी में ठंड के बाद भी उन्हें एलर्जी हो रही थी. तो इलाहाबाद जहां. भयंकर गर्मी पड़ती है और लाइट भी लंबी कटती है. वहां शेष भाई का क्या होता. कमर कसके मैंने मकान मालिक को अपने पास से किराया थमाया और सस्ता मकान ढूंढने की कोशिश में जुट गया. क्योंकि जिस किराए पर शेष बाबू रह रहे थे. उसमें कम से कम मैं तो नहीं रह सकता था. काफी खोज बीन के बाद सलोरी की काटजू कालोनी में एक मकान मिल गया. नंबर था एलआईजी-16. एक कमरेवाला सरकारी मकान. किराया था चार सौ रुपए बिजली पानी के साथ. शेष भाई के अनुमति से मकान बदल लिया. जिसके बाद बारिश का सीजन शुरू हो गया और शेष भाई फाइनली इलाहाबाद में फिर से प्रकट हुए.
नाम तैयारी का था. लेकिन शेष भाई का वक्त तो रामनगर में बीत रहा था. सो जल्दी-जल्दी किताबों की खरीदारी शुरू हुई. जब से गए थे. तब से आए प्रतियोगिता दर्पण, योजना और कई पत्रिकाओं के सभी अंक खरीदे गए. शेष भाई जरा और लोगों से जुदा थे. सो टीच योरसेल्फ की किताबें भी उन्होंने बड़ी संख्या में जुटा रखी थी. जिनके बारे में इलाहाबादी तैयारी करनेवालों की राय थी. कि टीच योरसेल्फ या तो शुरू से पढ़ों और अगर नहीं पढ़ा. तो मत पढ़ों क्योंकि इनसे संतुलन गड़बड़ा जाता है. लेकिन बैरागी आदमी शेष भाई एक ही घाट पर शेष और बकरी पानी पिलाने पर अमादा थे. सो वो दोनों ही विधाओं से पढ़ रहे थे. यानि पढ़ाई में सबसे अलग थे हमारे शेष बाबू. अगले लेख में शेष बाबू की उपलब्धियां.