Tuesday, August 17, 2010

सहवाग...बडप्पन दिखाओ बड़प्पन...

कथित साजिश का शिकार हुए वीरेंद्र सहवाग. रनदीव ने जान बूझकर बड़ी सी नो बॉल डाली. जिस पर वीरेंद्र सहवाग ने सिक्सर तो लगाया. लेकिन नो बॉल होने के कारण सहवाग के खाते में रन नहीं जुड़ा और सहवाग 99 पर ही नाबाद रह गए. बात निकली. तो साफ-सफाई का सिलसिला शुरू हुआ. श्रीलंका के कप्तान कुमार संगकारा ने झट से कह दिया कि सहवाग शतक के हकदार थे. लेकिन इसके कुछ देर बाद ही सहवाग ने पूरे राज का पर्दाफाश कर दिया और कहा कि उन्हें शतक नहीं बनाने दिया गया. सहवाग ने इस बात का भी खुलासा किया कि इसका शिकार वही नहीं हुए हैं. इससे पहले मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर भी शिकार हो चुके हैं. तब भी सामनेवाली टीम श्रीलंका ही थी.
देखते ही देखते सहवाग का शतक भारत की बोनस अंको से हुई जीत पर भारी पड़ता दिखने लगा. क्रिकेट के पंडित स्टोपर्टस मैन स्पिरिट का बात उठाने लगे. इसी बीच नो बॉल फेकनेवाले रनदीव ने सहवाग से माफी मांग ली. लेकिन सहवाग ने रनदीव को माफ करने से इनकार कर दिया. आखिर सहवाग का ये कौन सा व्यवहार है. रनदीप अभी नए-नए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में आए हैं. जबकि सहवाग के पास सालों का अनुभव है और वो टीम इंडिया के उपकप्तान जैसे जिम्मेदार पद पर भी हैं. ऐसे में सहवाग का रनदीव को नहीं माफ करना. हम तो उनकी जिद ही कहेंगे. क्या सहवाग को बड़प्पन नहीं दिखाना चाहिए. निश्चय ही सहवाग को बडप्पन दिखाते हुए रनदीव को माफ कर देना चाहिए. क्योंकि ये कहा जाता है कि अगर गलती हुई है और उसे मान लिया जाए. तो इससे बड़ी कोई भी चीज नहीं है.
ऐसे में सहवाग को गुस्सा भुलाकर रनदीव को माफ कर देना चाहिए. क्योंकि पूरे प्रकरण से रनदीव को एक सबक तो मिल ही गया है कि खेल अगर खेल भावना से नहीं खेला जाएगा. तो उसका क्या असर हो सकता है. फिर सहवाग कोई रिटायर तो होने नहीं जा रहे हैं. अभी उन्हें ऐसे जाने कितने मैच खेलने हैं और वो जिस शैली में बल्लेबाजी करते हैं. ऐसे कितने ही शतक उनके बल्ले से निकल सकते हैं. हो सकता है कि पाकिस्तान जैसी कोई बड़ी पारी सहवाग को इंतजार कर रही हो. जो उनके सारे गम को भुला दे. फिर मन में गुस्से का भाव लेकर खेल भी अच्छा नहीं खेला जा सकता है. इसलिए सहवाग गुस्सा थूकों और माफ कर दो रनदीव को. आखिर अभी वो नया-नया जो है. इससे तुम्हारा मान ही बढ़ेगा सहवाग.

Friday, August 13, 2010

शरद की 'गरम' जुबान

शरद यादव जतना दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाते हैं. लेकिन इस बेबाकी में शरद की जुबान कई बार ऐसा सच बोल जाती है. जो वक्त की नज़ाकत के हिसाब से ठीक नहीं होती है. दिल्ली में शरद यादव कुछ ऐसा ही कह गए. एक किताब के विमोचन समारोह में शरद पहुंचे थे. भाषण के दौरान शरद कॉमनवेल्थ गेम्स का जिक्र कर बैठे और लगे हाथ उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी शरद बोले. शरद गेम्स के पक्ष में नहीं है. ये बात वो सालों से करते आ रहे हैं.
शरद ने बोलना शुरू किया. तो एसियाड को भी नहीं छोड़ा और कह बैठे की वो भी खेल बहुत अच्छे नहीं थे. घोटाले के दौरान शरद दिल्ली की बात करने लगे और कहने लगे कि यहां मैं छत्तीस साल से हूं. जो भी घोटाला करता है. वो पचा जाता है. कभी पकड़ा नहीं जाता है. शरद से विमोचन समारोह में आए लोगों ने इस संबंध में हामी भरवाई. क्या शरद यादव सही कह रहे हैं या फिर दिल्ली की खिल्ली उड़ा रहे हैं. अगर गौर करें. तो पिछले सालों में कोई ऐसे बड़े आदमी का उदाहरण नहीं है. जो दिल्ली का हो और धांधली करने के बाद पकड़ा गया हो. लेकिन शरद सच है तो क्या सही है. क्या उन्हें सभी दिल्लीवालों पर ऐसे उंगली उठानी चाहिए.
दिल्ली में रहनेवाले सभी लोग तो ऐसा नहीं कर सके. आखिर धांधली करने के लिए भी हैसियत चाहिए. कोई सड़क पर भीख मांगनेवाला और झुग्गी झोपड़ी या दिनभर मजदूरी में हाड़तोड़ मेहनत करनेवाला तो धांधली कर नहीं सकता. फिर एक कहावत है. मूस कितना भी मोटा होगा लोढ़ा से ज्यादा नहीं हो. अगर एक बार को मान भी लिया जाए कि गरीब आदमी धांधली करेगा. तो कितने की. हजार-दो हजार चार हजार की. करोड़ो और अरबों तक तो नहीं पहुंचेगा. दस रुपए की चीज दो सौ में तो नहीं खरीदेगा. ये काम तो कुछ ज्यादा ही गुड़ी लोग कर सकते हैं और ये उनके ही बूते की बात भी है.

Tuesday, August 10, 2010

किस राह पर बिहार की राजनीति

कोशी प्रमंडल में बिहार विधानसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं. इसी वजह से इस क्षेत्र पर सभी राजनीतिक दलों की नजर है. आनंद मोहन इस क्षेत्र के बड़े नेताओं में शुमार हैं और इस समय गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैय्या हत्याकांड में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं. सहरसा जेल में बंद बाहुबली आनंद मोहन इन दिनों कोशी की राजनीति की धुरी बने हुए हैं. सभी राजनीतिक दल उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या बिहार के नेताओं ने पिछले साल के लोकसभा चुनाव से कोई सबक नहीं लिया है. जब वोटरों ने सिरे से बाहुबलियों को नकार दिया था. लेकिन अभी तक बाहबुलियों की पूछ अभी तक कम नहीं हुई है. जब से विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट तेज हुई है. राजनीतिक दल बाहुबलियों के सामने नतमस्तक नजर आ रहे हैं और उनके नेता लगातार बाहुबलियों को अपनी ओर मिलाने में लगे हैं. इसे राजनीति का कौन का चेहरा कहा जाए. वो भी तब जब वोटर बाहुबलियों को नकारने में लगे हैं. आखिर इसकी जमीनी सच्चाई क्या है. क्या राजनीतिक दल वोटरों की धारा से उलट बहना चाह रहे हैं. क्या उन्हें लग रहा है कि बाहुबलियों से ही बात बनेगी. अगर ऐसा होता है. तो बिहार जिस ढर्रे पर आगे बढ़ा था. वहीं, पर फिर से पीछे चला जाएगा. यानि कुछ सालों पहले जैसी ही स्थिति हो जाएगी. क्या इसे स्वीकार करने के लिए लोग तैयार हैं.
इस मुहिम में बिहार का कोई एक दल शामिल नहीं है. आरजेडी और जेडीयू प्रमुख दल हैं. इसलिए इन्हीं की चर्चा ज्यादा हो रही है. शुरुआत जेडीयू से हुई थी. जिसने सीमांचल के दबंग नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री तस्लीमुद्दीन को अपने साथ किया. इसके बाद आरजेडी ने प्रभुनाथ को अपने साथ जोड़कर जेडीयू को जवाब दिया. जेडीयू ने आनंद मोहन की ओर भी तुरप का पत्ता फेंका था. खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आनंद मोहन के गांव गए थे और उन्होंने पत्रकारों से बात करते हुए ये भी कहा था कि अगर आनंद मोहन जेडीयू में आते हैं. तो किसी को क्या परेशानी है. इसी के बाद लालू प्रसाद के दूत बनकर रामकृपाल आनंद मोहन से मुलाकात करने के लिए जेल पहुंचे थे. इसके बाद ददन पहलवान ने आनंद मोहन को साथ लाने की कोशिश की. अब फिर रामकृपाल ने आनंद मोहन से मुलाकात की है. इस बार की मुलाकात साढ़े तीन घंटे की थी. माना जा रहा है कि आनंद मोहन आरजेडी के साथ जा सकते हैं. अगर ऐसा होता है. तो सवाल वही हैं कि आखिर बिहार की राजनीति किस राह पर जा रही है.

Monday, August 9, 2010

नरेंद्र मोदी का साया...

बिहार में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन में मोदी पेंच हटने का नाम नहीं ले रहा है. जब भी दोनों दलों में चुनावों की बात होती है. नरेंद्र मोदी की चर्चा अनायास ही शुरू हो जाती है. हालांकि बीजेपी के रुख को देखे. तो लगता है कि उसने तय कर लिया है कि वो बीजेपी विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी को नहीं भेजेगी. वरुण गांधी भी बिहार चुनाव में पार्टी के लिए प्रचार नहीं करेंगे. लेकिन बीजेपी के नेता इस बात को खुलकर स्वीकार करना नहीं चाहते हैं. बस पेंच इसी बात का है और इससे निकल रहा है चुनावी मसाला.
इस बार मोदी पेच की शुरुआत रविवार को तब हुई. जब दिल्ली में पार्टी कार्यकारिणी की बैठक के बाद जेडीयू नेता शरद यादव ने कहा कि बिहार में बीजेपी के साथ पुरानी व्यवस्था बहाल रहेगी. इसी के बाद ये बात तय हो गई कि प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी बिहार नहीं जाएंगे. इससे खबरिया चैनलों को मसाला मिल गया और हेडलाइन में फिर छा गए नरेंद्र मोदी. जेडीयू के बाद बारी बीजेपी की थी. सो पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि शरद यादव जेडीयू के अध्यक्ष हैं. बीजेपी के नहीं और बीजेपी ये तय करेगी कौन प्रचार के लिए जाएगा और कौन नहीं. लेकिन जावड़ेकर इस बात का कोई जबाव नहीं दे सके. कि मोदी बिहार जाएंगे या फिर नहीं.
इसके बाद बारी बीजेपी नेता राजनाथ सिंह की थी. जो इस सवाल से ही बचते नजर आए. पटना में जब उनसे इस संबंध में सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस सवाल का औचित्य क्या है. अगर उन्हें औचित्य समझ में आएगा. तभी जवाब देंगे. साथ ही राजनाथ ये भी कहते रहे कि जेडीयू ने बीजेपी के सामने कोई शर्त नहीं रखी है. लेकिन राजनाथ भी इस बात का जवाब नहीं दे सके कि मोदी प्रचार के लिए बिहार जाएंगे या फिर नहीं.
बात ज्यादा दिन पुरानी नहीं है. जब मोदी को लेकर जेडीयू और बीजेपी में बात तलाक तक पहुंच गई थी. तब विवाद की जड़ बना साथ नीतीश और मोदी का पोस्टर. जिस पर नीतीश ने सार्वजनिक रूप स नाराजगी जताई और कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दी थी. इसके बाद पटना पुलिस ने जांच भी की थी. इससे बिफरी बीजेपी में भी बैठकों का दौर चला. लेकिन बीच बचाव के बाद बीजेपी ने मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया. लेकिन चुनाव की बात शुरू होते ही अब फिर से मोदी का पेंच सामने आ गया है. इस सवाल से बीजेपी कैसे निपटे पार्टी नेता इसकी काट अभी तक नहीं खोज पाए हैं.

Saturday, August 7, 2010

ये रिश्ता क्या कहलाता है

दंबग माने जाने वाले प्रभुनाथ सिंह ने आखिरकार लालू प्रसाद का दामन थाम लिया. कभी धुर लालू के विरोधी रहे प्रभुनाथ सिंह ने नई दोस्ती के लिए अगस्त क्रांति दिवस को चुना था. दोनों के मिलन के गवाह बने सारण क्षेत्र के हजारों लोग जो किसान महापंचायत में शामिल होने के लिए आए थे. लेकिन सवाल ये उठता है कि राजनीति में ये बेमेल जोड़ आखिर क्या गुल खिलाएगा. आखिर लालू में आस्था व्यक्त करनेवाले प्रभुनाथ सिंह किस तरह से आरजेडी के लिए वोट मांगेंगे. सवाल ये कि...ये रिश्ता क्या कहलाएगा.
बिहार की राजनीति में भी इसकी चर्चा हो रही है. प्रभुनाथ सिंह खुद के आरजेडी में शामिल होने को जनता की आवाज़ बता रहे हैं. लेकिन वास्तव में क्या ऐसा है. तो जवाब मिलता है. नहीं. क्योंकि प्रभुनाथ सिंह जिस तेवर के नेता माने जाते हैं. उसमें इसकी गुंजाइश काफी कम है. हालांकि सारण इलाके में उनका खासा वर्चस्व है और इसका असर भी बिहार विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है. लेकिन लालू और प्रभुनाथ की दोस्ती बहुत दिनों तक चल पाएगी.
आखिर ये सवाल क्यों उठ रहा है. कि लालू-प्रभुनाथ की दोस्ती बेमेल है. तो इसके पीछे एक वजह है. दोनों के अपने राजनीतिक सरोकार. प्रभुनाथ सिंह अभी तक अपनी शर्तों पर राजनीति करते आए हैं. इसको लेकर उनकी आलोचना भी होती रही है और वो किसी बात को बहुत बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. इस बारे में भी लोग जानते हैं. जबकि लालू की राजनीति इससे बिल्कुल अलग है. वो आरजेडी में नेताओं को अपनी शर्तों पर रखते हैं और जो भी इससे सहमत नहीं होता है. वो या तो खुद अलग हो जाता है या हासिए पर चला जाता है. शिवानंद तिवारी इसके अच्छे उदाहरण हैं. जिन्होंने आरजेडी में दोनो दौर देखे हैं. फिलहाल वो जेडीयू में हैं.
ऐसे में लालू और प्रभुनाथ का साथ चुनावी फायदे के लिए जरूर दिखता है. अगर चुनाव में सफलता मिलती है. तो दोनों नेता कुछ दिनों तक साथ चल सकते हैं. और अगर चुनाव में आपेक्षित लाभ नहीं मिला. तो इस दोस्ती का हश्र क्या होगा. इसका अंदाजा बहुत आसानी से लगाया जा सकता है. यही नहीं लालू प्रसाद से दोस्ती की बात करें. तो बड़े भाई-छोटे भाई के रूप में बिहार चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहे पासवान से उनकी दोस्ती पर ग्रहण लगा हुआ है. इसका हश्र क्या होगा. इसको लेकर सवाल उठने लगे हैं. क्योंकि पासवान ने खुद को उस महापंचायत से दूर रखा. जिसमें उन्हें लालू प्रसाद के साथ जाना था. और इस दूरी की वजह सीट बटवारे को लेकर उपजा विवाद माना जा रहा है.
पासवान का मामला तो ताजा है. अगर इतिहास की बात करें. तो लालू प्रसाद बिहार की सत्ता में आने के बाद वामदलों और कांग्रेस जैसी पार्टियों से दोस्ती कर चुके हैं. लेकिन किसी भी भी राजनीति लालू से दोस्ती के बाद सिरे नहीं चढ़ पाई. दहाई में रहनेवाले वामदल मुश्किल से बिहार विधानसभा में खाता खोल पा रहे हैं. लोकसभा में तो इस पर भी ग्रहण लग गया है.
कभी बिहार में राज करनेवाली कांग्रेस लालू प्रसाद की पिछलग्गू बन गई. कांग्रेस का भी जनाधार बद से बदतर की स्थिति में पहुंच गया. लालू प्रसाद से अलग होकर अब कांग्रेस और वामदल फिर से अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में प्रभुनाथ और लालू की दोस्ती के मायने आसानी से समझे जा सकते हैं।

'कुछ कर दिखाना है'

अमरेश राय इन दिनों दिल्ली के पॉश इलाके साउथ एक्सटेंशन-2 में रहते हैं. वहीं, एक भाई साहब के साथ मिलकर अपनी कंपनी. जो छात्रों के विदेश में पढ़ने भेजती है. उनके व्यक्तित्व का विकास करती है. उसे सिरे चढ़ाने की कोशिशों में लगे हैं. भाई अमरेश के मन में छटपाहट है. देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की. जितनी बार बात होती है. ये टीस उनकी बातों में झलकती है. देश और दुनिया में क्या चल रहा है. वो उस पर पैनी नजर रखते हैं और जैसे ही कोई बात को और विस्तार में समझना होता है या फिर किसी चीज पर राय लेनी होती है. तुरंत फोन खटखटा देते हैं. फिर बेबाक राय का सिलसिला शुरू होता है. हालांकि इससे समाज और देश का कोई भला नहीं होता है. लेकिन उसकी भूमिका में एक कदम और जरूर जुड़ता है. ऐसा मेरा मानना है.
अमरेश राय से मुलाकात इलहाबाद में 1992 में हुई. बस्ती के खलीलाबाद से मेडिकल की तैयारी का सपना लेकर इलाहाबाद आए अमरेश एक कोचिंग सेंटर के हॉस्टल में रहते थे. वहीं, पास ही हमारे कुछ अन्य मित्र थे. जिनका राय साहब से आते-जाते परिचय हो गया था. एक दिन हम भी उन्हीं लोगों के साथ राय साहब के कमरे पर पहुंचा और फिर वहीं, से मुलाकात और एक-दूसरे के बारे में जानने का सिलसिला शुरू हुआ. जो अभी तक जारी है. हम एक-दूसरे को अब भी समझ रहे हैं.
मेडिकल की पढ़ाई में मन नहीं लगा. मन से उद्यमी राय साहब ने इलाहाबाद से दिल्ली के लिए उड़ान भर दी. दिल्ली में रहते हुए राय साहब ने कई काम किए. उस समय शायद नियति को मंजूर नहीं था. कि राय साहब दिल्ली में तरक्की करें. सो पेट की गंभीर बीमारी का शिकार हो गए और जो ताना बाना बुना था. वो एक झटके में खत्म हो गया और राय साहब फिर गोरखपुर की पथरीली जमीन पर पहुंच गए. वहीं, से फिर नया दौर शुरू हुआ. शिक्षा के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का. इसमें राय साहब सफल भी हुए और जल्द गोरखपुर में अंग्रेजी भाषा पढ़ानेवाले अच्छे शिक्षकों में से एक बन गए. लेकिन राय साहब की मंजिल गोरखपुर नहीं थी. सो हैदराबाद पहुंच गए. जहां से उन्होंने छात्रों को विदेश में पढ़ाई के लिए भेजने का सिलसिला शुरू किया. जो अभी तक जारी है और दिनों दिन उसका करवां बढ़ता जा रहा है. राय साहब भले ही अभी तक अपनी पहचान उस स्तर पर नहीं बना पाए हैं. जिसके लिए वो प्रयासरत हैं. क्योंकि इसके आड़े में आ रहा है धन. जो अभी उनके पास नहीं है. लेकिन इतना जरूर है कि शाम को भूखे नहीं सोना पड़ता है. अपने साथ परिवार और आसपास के लोगों का खासा ख्याल राय साहब रखते हैं. उनमें से एक मैं भी हूं. जो उनकी कृपा को शायद अपने अंतिम समय तक नहीं भुला सकता. ये तो व्यक्तिगत बात हुई. लेकिन जुड़ी राय साहब के सरोकार से है. इसलिए इसका उल्लेख जरूरी था.
राय साहब के मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने का कीड़ा चल रहा है. जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं. आज सुबह की ही बात है. राय साहब का फोन आया और कहने लगे. कि बॉस मैं शांति से इस दुनिया से नहीं जाना चाहता हैं. ऐसा कुछ करना चाहता हूं. जिसके बारे में लोग सोचें और बोले. ऐसा काम जो अच्छा हो और देश को आगे बढ़ाए. ये सब राय साहब अन्य लोगों की तरह अमर होने के लिए नहीं कह रहे हैं. लेकिन उनकी एक सोच रही है. कि कुछ करना चाहिए. पर अभी तक राय साहब को वो मंच नहीं मिला है. जिसकी तलाश उन्हें है. लेकिन जिस तरह से वो अपने मिशन में जुटे हैं. हमें उम्मीद ही नहीं...विश्वास है कि उन्हें जल्द ही वो मिलेगा.

Friday, August 6, 2010

क्या तलाक की तैयारी है !

बिहार में बड़े भाई-छोटे भाई के रूप में चुनाव में उतरने का दावा करनेवाले आरजेडी-एलजेपी में क्या चल रहा है. क्या दोनों में तलाक की तैयारी है. क्या दोनों दलों के बड़े नेता जो साथ मिलकर लड़ने का दावा कर रहे थे. वो अब आगे जारी नहीं रहेगा. आखिर दोनों दलों के बीच पेच क्या फंस रहा है. अभी तक क्यों नहीं हो सका है दोनों दलों के बीच सीटों का बटवारा. लालू-पासवान एक सप्ताह से क्यों नहीं दिख रहे हैं साथ.
14 जुलाई को पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में रामविलास पासवान ने घोषणा की थी. कि अगले सप्ताह भर में सीटों को लेकर आरजेडी से उनका समझौता हो जाएगा और सार्वजनिक रूप से समझौते का ऐलान कर दिया जाएगा. इस बयान को इक्कीस दिन से ज्यादा बीत चुके हैं. लेकिन अभी तक दोनों दलों के बीच सीटों पर सहमति नहीं बन पाई है. सीट बटवारे में हो रही देरी को लेकर एलजेपी नेता अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं. लेकिन आरजेडी के नेता इस मुद्दे पर चुप हैं. दोनों दलों के मुखिया दिल्ली में हैं और संसद की कार्यवाही में भाग ले रहे हैं.
आरजेडी-एलजेपी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष भी दिल्ली में हैं और पिछले कई दिनों से सीटों के बटवारे को लेकर माथापच्ची चल रही है. लेकिन अभी तक सहमति नहीं बनी है. सूत्रों की मानें तो एलजेपी जितनी सीटों की मांग कर रही है वो देने के लिए आरजेडी तैयार नहीं है. एलजेपी का मंसूबा पहले नब्बे से पंचानबे सीटों पर लड़ने का था. लेकिन अब पार्टी अस्सी सीटों की मांग कर रही हैं. लेकिन सूत्रों का कहना है कि आरजेडी केवल चालीस सीटें ही एलजेपी को देना चाहती है. बस इसी बात को लेकर दोनों दलों के बीच किचकिच पैदा हो गई है.
खबर तो यहां तक है कि आरजेडी और एलजेपी के रिश्तों में तलाक हो सकता है. अगर कांग्रेस की ओर से अच्छा ऑफर एलजेपी को मिल गया. तो रामविलास पासवान कांग्रेस के साथ मिलकर बिहार में चुनाव लड़ सकते हैं. कहा तो ये भी जा रहा है कि इस दिशा में बात के लिए पासवान कदम भी बढ़ा चुके हैं. लेकिन सच्चाई क्या है. ये तो पासवान ही जानें. या फिर उस वक्त का इंतजार करना होगा. जब पासवान अपने पत्ते खोलेंगे. लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से आरजेडी और एलजेपी के नेता चुप्पी साधे हुए हैं. वो अपने आप में चौकानेवाली है और आनेवाले दिनों में इसके राजनीतिक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

कलमाड़ी जी कैसे कराएं जांच...?

कलमाड़ी को कॉमनवेल्थ खेल की चिंता है और वो इसे सफलतापूर्वक सम्मन्न कराना चाहते हैं. इसलिए अपनी कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं. साथ ही कलमाड़ी भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की बात भी कर रहे हैं और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कर रहे हैं. लेकिन ये कैसे हो सकता है. कलमाड़ी के पद पर बने रहते जांच कैसे हो सकती है. क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में जो तीन का तेरह हुआ है. वो क्या कलमाड़ी की नजर में नहीं था. क्या अध्यक्ष होने के नाते उनका ये फर्ज नहीं बनता था कि जो पैसा खर्च हो रहा है. उसका हिसाब क्या है. क्यों बाजार में जो चीज कुछ हजार में रही है. उसके लिए कमेटी लाखों रुपए खर्च करने को तैयार है.
जो ट्रेडमिल बाजार में तीन लाख में मिल रही है. उसके लिए लगभग दस लाख किराया दिए जाने की तैयारी कैसे हो रही है. कोषाध्यक्ष जैसे पद पर बैठे व्यक्ति के बेटे को कैसे कांट्रेक्ट दिया जा रहा है और वो भी उस फर्म को जिस पर पहले से ही दाग है. उस एजेंसी को मोटा कमीशन देने की तैयारी क्यों की गई. जो पिछले दो साल में एक भी प्रायोजक नहीं जुटा पाई है. भला हो कांग्रेस के सांसद मणिशंकर अय्यर का और उस मीडिया को जिसने पूरा मामला उजागर किया.
कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले उजागर हुए इन मामलों से आम आमदी जिसके खून पसीने का पैसा है. कुछ तो लुटने से बच रहा है. अभी कहां-कहां और कितना बड़ा धांधली का मामला है इसकी तो अभी परत दर परत खुलने लगी है. अभी तो और भी कई बड़े खुलासे लगता है कि आनेवाले दिनों में होते रहेंगे. नौ की जगह नब्बे खर्च करके क्या देश की साख बढ़ाई जा सकती है. घटिया सुविधाएं देकर क्या देश का नाम रोशन किया जा सकता है.
वर्ल्ड क्लास सुविधा देने की बात हो रही है. लेकिन जिस तहह की तैयारियां हो रही है. जिस तरह से छत से पानी टकप रहा है. काम आधे-अधूरे पड़े हैं. वैसे में देश का सम्मान कैसे बच सकता है. कैसे कलमाड़ी साहब कह रहे हैं कि उनकी पहली प्राथमिकता कॉमनवेल्थ गेम्स है. और उन्हें वो सफलता पूर्वक सम्पन्न कराएंगे.
ये वही कलमाड़ी साहब है जो पंद्रह दिन पहले तक कह रहे थे. कि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में किसी तरह की गड़बड़ी नहीं है. लेकिन जब परतें खुलने लगी. तो कार्रवाई भी शुरू हो गई. हालांकि कार्रवाई केवल साख बचाने जैसी लगती है. लेकिन क्या इससे इससे कॉमनवेल्थ गेम के आयोजन समिति की साख बचेगी...?

Thursday, August 5, 2010

मोदी जी कहां है राजेश गुप्ता ?

लखीसराय के बीजेपी कार्यकर्ता राजेश गुप्ता का पता नहीं है. दो अगस्त से राजेश घर नहीं लौटा है. वही दो अगस्त जब राजेश पार्टी के विकास शिविर में भाग लेने के लिए गया था. जहां सूबे के डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी आए थे. विकास शिविर के दौरान राजेश ने ट्रेजरी निकासी से संबंधित सवाल मोदी से किया था. जिस पर मोदी ने आपा खो दिया और पुलिसवालों को राजेश को वहां से ले जाने को कह दिया. पुलिसवाले राजेश को अपने साथ लेकर गए. जिसके बाद अभी तक राजेश का पता नहीं है.
सरकार और उसके हाकिम से जुड़ा मामला है. सो लखीसराय के प्रशासन के जुबान पर ताला लगा है. डीएम से लेकर कोई भी आला अधिकारी कुछ बोलने को तैयार नहीं है. दबी जुबान से कुछ अधिकारी कह रहे हैं कि राजेश का दिमागी संतुलन ठीक नहीं है. और उसे छोड़ दिया गया था. जिसके बाद उसका पता नहीं है. लेकिन जिस जगह पर राजेश रहता है. वहां के वार्ड पार्षद कुछ और ही कह रहे हैं. वो बताते है कि राजेश बहुत ही होनहार था. पढ़ने में भी अपने कॉलेज में टॉप था. पिछले कुछ सालों से बीजेपी का समर्पित कार्यकर्ता था. उसके साथ जो हुआ. वो ठीक नहीं है.
वहीं, राजेश के परिजन परेशान हैं. उनके घर में खाना नहीं बन रहा है. चूल्हा चौकी सब बंद है. राजेश कहां है उन्हें इस बात का पता नहीं है. राजेश के परिजन भी उसके मानसिक रूप से ठीक होने के बात कह रहे हैं. इस बीच खबर ये भी है कि लखीसराय बीजेपी का ही एक नेता राजेश को लेकर पटना गया था. लेकिन पटना में भी राजेश किसी को नहीं दिखा. अब सवाल ये है कि अगर राजेश बीजेपी नेताओं के साथ है. तो उन्हें इसका खुलासा करना चाहिए. क्योंकि ये केवल बीजेपी पार्टी का मामला नहीं है. ये एक परिवार से जुड़ा मामला है. जिसके यहां पिछले तीन दिनों से खाना बनना बंद है और राजेश के परिजन किसी अनहोनी की आशंका से डरे हैं।

Wednesday, August 4, 2010

सूखे पर चुनावी तड़का

बिहार सरकार ने 38 में से 28 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है. इसे सरकार का सराहनीय कदम कहें. इससे पहले उन आकड़ों पर नजर डालना जरूरी है. जो मौसम विभाग की ओर से जारी किए गए हैं. अभी तक बिहार में औसत से केवल 24 फीसदी कम बारिश हुई है. जो अगस्त और सितंबर में होनेवाली बारिश से कवर हो सकती है. ये हम नहीं विशेषज्ञ कहते हैं.
अब सवाल उठता है कि आखिर बिहार सरकार को क्या हड़बड़ी थी. जो उसने 28 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया. इसके पीछे वजह. बिहार विधानसभा चुनाव हैं. जो अगले दो महीने में होनेवाले हैं. जिसके लिए जल्दी ही अधिसूचना जारी होनेवाली है. तब सरकार के हाथ बंध जाएंगे. इसीलिए 28 जिलों को सूखाग्रस्त ही घोषित नहीं किया गया है. बल्कि कैबिनेट ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली कमेटी को ये भी अधिकार दिए हैं. कि बाकी बचे दस जिलों के बारे में वो फैसला ले सकती है. यानि आनेवाले दिनों में प्रशासनिक स्तर पर कोई घोषणा हो. तो चौकिएगा नहीं.
पिछले साल औसत से लगभग पचहत्तर फीसदी कम बारिश हुई थी और बारिश नहीं होने को लेकर चारों ओर हाहाकार मचा था. काफी माथापच्ची के बाद सरकार ने दस अगस्त को 26 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया था. जबकि इस बार एक सप्ताह पहले यानि तीन अगस्त को भी 28 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित करने का फैसला ले लिया गया.
विपक्ष सरकार की चाल समझता है. लेकिन उसे भी वोट चाहिए. इसलिए वार तो कर रहा है. लेकिन संभलकर. आरजेडी-एलजेपी ने तो अभी इस पर मुंह नहीं खोला है. लेकिन कांग्रेस ने गम खाते हुए टिप्पणी कर ही दी. आखिर इतनी क्या जल्दी थी.

Tuesday, August 3, 2010

सुशील मोदी के तेवर देखो...

सुशील मोदी. यानि बिहार में नीतीश के डिप्टी. पार्टी में विरोध के बाद भी डिप्टी सीएम की कुर्सी हथियाने में कामयाब रहे. वित्त मंत्रालय भी सुशील मोदी के पास है. हाल में जो कैग रिपोर्ट में ट्रेजरी से निकासी का मामला आया है. वो भी वित्त मंत्रालय से ही जुड़ा हुआ है. क्योंकि सूबे में जिनता पैसा आता-जाता है. उसका लेखा वित्त मंत्रालय को ही रखना होता है.
मोदी जी गए थे लखीसराय में अपनी पार्टी बीजेपी के कार्यालय का उद्घाटन करने के लिए. वहीं पर कार्यक्रम के दौरान पार्टी के ही एक कार्यकर्ता ने उनसे कैग रिपोर्ट पर सवाल करने की जुर्रत कर दी. फिर क्या था. मोदी जी की त्योरी चढ़ गई और उन्होंने उस कार्यकर्ता को गिरफ्तार करने का निर्देश जारी कर दिया. मौके पर मौजूद पुलिसवालों ने क्या बिसात कि वो हुक्म की नाफरमानी करते. कार्यकर्ता को पुलिसवालों ने हिरासत में ले लिया और बैठा लिया जीप में. ले गए पुलिस थाने. पुलिस थाने में क्या होता है. आप सब लोग जानते हैं. उस पर ज्यादा प्रकाश डालने की जरूरत नही हैं.
जैसे ही युवक को पकड़ कर कार्यक्रम स्थल से बाहर ले गए पुलिसवाले. सुशील मोदी को एनडीए की याद आई और उन्होंने एनडीए के पक्ष में नारेबाजी शुरू कर दी. एनडीए एकता. बाकी काम पार्टी कार्यकर्ताओं ने जिंदाबाद करके कर दी.
मोदी ने जो किया या करवाया. वो ट्रेजरी से अरबों रुपए की निकासी को लेकर सरकार की हो रही किरकिरी की खीझ कही जा सकती है. विपक्ष इस मुद्दे को लेकर सरकार को घेर रहा है. राज्यसभा तक का कामकाज स्थगित हो रहा है. लेकिन क्या मजाल है कि राज्यसभा में सवाल उठानेवालों पर मोदी जी ऐसा कर सकते हैं. आखिर ये कैसा मानदंड है. क्यों खुलकर मोदी जी और उनकी पार्टी इस मुद्दे पर साफ-साफ नहीं कह रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बच रहे हैं.
आखिर इसके पीछे बात क्या है. ये जनता को बताना चाहिए. क्योंकि आम लोग ये जानना चाहते हैं. जिस तरह से लखीसराय में सच जानने की कोशिश करनेवाले व्यक्ति की जुबान बंद की गई. अगर ऐसा होता रहा. तो इसका संदेश लोगों के बीच में क्या जाएगा. ये सभी जानते हैं. और ऐसे में चुनावी साल में मोदी जैसे लोगों की क्या गति होगी. ये भी शादय किसी के छुपा नहीं है. क्योंकि जनता जिसे सिरे चढ़ाती है. अगर उसको सही जबाव नहीं मिले. तो उतार भी देती है. केवल ये कहने से काम नहीं चलेगा. कि पिछले पांच साल में बहुत काम हुआ है.
अगर हम कहें कि पिछले पांच साल में बहुत पाप हुआ है. तो क्या ये सही हो जाएगा. जब तक की हम अपने तर्क के पक्ष में कुछ ऐसे सबूत नहीं पेश करें. जिन पर लोग विश्वास करें. देश और दुनिया भले ही दूर से मान ले. लेकिन जो लोग रह रहे हैं और स्थितियों का सामना कर रहे हैं. उनसे तो कुछ छुपा नहीं है.

Monday, August 2, 2010

राज ठाकरे का नया ड्रामा...?

राज ठाकरे वही देखते हैं.जिसे वो देखना चाहते हैं.या फिर जिसे राजनीति उन्हें देखने के लिए कहती है.चाहे वो सौ फीसदी गलत क्यों नहीं हो. ऐसा ही राज ठाकरे के नए बयान से लगता है. जिसमें एक बार फिर उन्होंने उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया है. राज ठाकरे का कहना है कि मुंबई के गंदगी उत्तर भारतीयों की वजह से है और इसी वजह से फैल रहा है डेंगू और मलेरिया.
लेकिन राज को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए. कि मुंबई के विकास में कितना योगदान उत्तर भारतीयों का है. योगदान के बाद भी उत्तर भारतीय किस स्थिति में मुंबई में हैं. क्या कभी राज ने राजनीति से ऊपर उठकर ऐसा करने क्या. सोचने तक की कोशिश की है. अगर की होती. तो शादय उनकी स्थिति राजनीति में इस जो है. उससे कहीं ज्यादा अच्छी है. राज ठाकरे शिवसेना से अलग हो गए हैं और अलग पार्टी के रूप में पहचाने जाते हैं. लेकिन उनकी मानसिकता अब भी शिवसेना वाली है. शिवसेना की बी टीम लगती है राजठाकरे की पार्टी. क्या इससे राज ठाकरे उस स्थिति को प्राप्त कर सकेंगे. जिसको लक्ष्य बनाकर वो राजनीति में उतरे हैं. क्या वो कभी महाराष्ट्र के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. अपनी हरकतों से भले ही वो किसी को भी झुकने को मजबूर कर दें. लेकिन ये ज्यादा दिन चलनेवाला नहीं है.
क्योंकि राज ठाकरे को ये बात याद होनी चाहिए. कि नफरत दिखाकर किसी को नहीं जीता जा सकता है. जीतने के लिए तो प्यार की जरूरत होती है. जिसे अपने दिल में पैदा करना सबसे जरूरी है. अगर राज ठाकरे घिनौनी राजनीति छोड़कर करते हैं. तो इससे महाराष्ट्र का भला तो होगा ही. देश का भी भला होगा और सभी आगे बढ़ सकेंगे भाईचारे के साथ. महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को दोहरी जिगंदी नहीं जीनी पड़ेगी. तब राज ठाकरे अपनी उस राजनीतिक मुकाम तक शायद पहुंच पाएंगे. जिसको लेकर उन्होंने महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का निर्माण किया है. क्योंकि अभी तक महाराष्ट्र में जो भी नया निर्माण हुआ है. उसमें महाराष्ट्र के लोगों का हाथ तो है ही. साथ ही उन लोगों का हाथ भी है. जो बाहर से आकर महाराष्ट्र में रच बस गए हैं. या यूं कहें कि बाहर से आए लोगों का महाराष्ट्र के निर्माण में ज्यादा योगदान रहा है.