Saturday, August 7, 2010

ये रिश्ता क्या कहलाता है

दंबग माने जाने वाले प्रभुनाथ सिंह ने आखिरकार लालू प्रसाद का दामन थाम लिया. कभी धुर लालू के विरोधी रहे प्रभुनाथ सिंह ने नई दोस्ती के लिए अगस्त क्रांति दिवस को चुना था. दोनों के मिलन के गवाह बने सारण क्षेत्र के हजारों लोग जो किसान महापंचायत में शामिल होने के लिए आए थे. लेकिन सवाल ये उठता है कि राजनीति में ये बेमेल जोड़ आखिर क्या गुल खिलाएगा. आखिर लालू में आस्था व्यक्त करनेवाले प्रभुनाथ सिंह किस तरह से आरजेडी के लिए वोट मांगेंगे. सवाल ये कि...ये रिश्ता क्या कहलाएगा.
बिहार की राजनीति में भी इसकी चर्चा हो रही है. प्रभुनाथ सिंह खुद के आरजेडी में शामिल होने को जनता की आवाज़ बता रहे हैं. लेकिन वास्तव में क्या ऐसा है. तो जवाब मिलता है. नहीं. क्योंकि प्रभुनाथ सिंह जिस तेवर के नेता माने जाते हैं. उसमें इसकी गुंजाइश काफी कम है. हालांकि सारण इलाके में उनका खासा वर्चस्व है और इसका असर भी बिहार विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है. लेकिन लालू और प्रभुनाथ की दोस्ती बहुत दिनों तक चल पाएगी.
आखिर ये सवाल क्यों उठ रहा है. कि लालू-प्रभुनाथ की दोस्ती बेमेल है. तो इसके पीछे एक वजह है. दोनों के अपने राजनीतिक सरोकार. प्रभुनाथ सिंह अभी तक अपनी शर्तों पर राजनीति करते आए हैं. इसको लेकर उनकी आलोचना भी होती रही है और वो किसी बात को बहुत बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. इस बारे में भी लोग जानते हैं. जबकि लालू की राजनीति इससे बिल्कुल अलग है. वो आरजेडी में नेताओं को अपनी शर्तों पर रखते हैं और जो भी इससे सहमत नहीं होता है. वो या तो खुद अलग हो जाता है या हासिए पर चला जाता है. शिवानंद तिवारी इसके अच्छे उदाहरण हैं. जिन्होंने आरजेडी में दोनो दौर देखे हैं. फिलहाल वो जेडीयू में हैं.
ऐसे में लालू और प्रभुनाथ का साथ चुनावी फायदे के लिए जरूर दिखता है. अगर चुनाव में सफलता मिलती है. तो दोनों नेता कुछ दिनों तक साथ चल सकते हैं. और अगर चुनाव में आपेक्षित लाभ नहीं मिला. तो इस दोस्ती का हश्र क्या होगा. इसका अंदाजा बहुत आसानी से लगाया जा सकता है. यही नहीं लालू प्रसाद से दोस्ती की बात करें. तो बड़े भाई-छोटे भाई के रूप में बिहार चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहे पासवान से उनकी दोस्ती पर ग्रहण लगा हुआ है. इसका हश्र क्या होगा. इसको लेकर सवाल उठने लगे हैं. क्योंकि पासवान ने खुद को उस महापंचायत से दूर रखा. जिसमें उन्हें लालू प्रसाद के साथ जाना था. और इस दूरी की वजह सीट बटवारे को लेकर उपजा विवाद माना जा रहा है.
पासवान का मामला तो ताजा है. अगर इतिहास की बात करें. तो लालू प्रसाद बिहार की सत्ता में आने के बाद वामदलों और कांग्रेस जैसी पार्टियों से दोस्ती कर चुके हैं. लेकिन किसी भी भी राजनीति लालू से दोस्ती के बाद सिरे नहीं चढ़ पाई. दहाई में रहनेवाले वामदल मुश्किल से बिहार विधानसभा में खाता खोल पा रहे हैं. लोकसभा में तो इस पर भी ग्रहण लग गया है.
कभी बिहार में राज करनेवाली कांग्रेस लालू प्रसाद की पिछलग्गू बन गई. कांग्रेस का भी जनाधार बद से बदतर की स्थिति में पहुंच गया. लालू प्रसाद से अलग होकर अब कांग्रेस और वामदल फिर से अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में प्रभुनाथ और लालू की दोस्ती के मायने आसानी से समझे जा सकते हैं।

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